यह कोई न जानता था कि लैला कौन है, कहां है, कहां से आयी है और क्या करती है। एक दिन लोगों ने एक अनुपम सुंदरी को तेहरान के चौक में अपने डफ पर हाफिज की एक गजल झूम-झूम कर गाते सुना –
रसीद मुजरा कि ऐयामें गम न ख्वाहद मांद,
चुनां न मांद, चुनीं नीज हम न ख्वाहद मांद।
और सारा तेहरान उस पर फिदा हो गया। यही लैला थी।
लैला के रुप-लालित्य की कल्पना करनी हो तो ऊषा की प्रफुल्ल लालिमा की कल्पना कीजिए, जब नील गगन, स्वर्ण-प्रकाश से संजित हो जाता है, बहार की कल्पना कीजिए, जब बाग में रंग-रंग के फूल खिलते हैं और बुलबुलें गाती हैं।
लैला के स्वर-लालित्य की कल्पना करनी हो, तो उस घंटी की अनवरत ध्वनि की कल्पना कीजिए जो निशा की निस्तब्धता में ऊंटों की गरदनों में बजती हुई सुनायी देती हैं, या उस बांसुरी की ध्वनि की जो मध्यान्ह की आलस्यमयी शांति में किसी वृक्ष की छाया में लेटे हुए चरवाहे के मुख से निकलती है।
जिस वक्त लैला मस्त होकर गाती थी, उसके मुख पर एक स्वर्गीय आभा झलकने लगती थी। वह काव्य, संगीत सौरभ और सुषमा की एक मनोहर प्रतिमा थी, जिसके सामने छोटे और बड़े, अमीर और गरीब सभी के सिर झुक जाते थे। सभी मंत्रमुग्ध हो जाते थे, सभी सिर धुनते थे। वह उस आनेवाले समय का संदेश सुनाती थी, जब देश में संतोष और प्रेम का साम्राज्य होगा, जब द्वंद्व और संग्राम का अन्त हो जायगा। वह राजा को जगाती और कहती, यह विलासिता कब तक, ऐश्वर्य-भोग कब तक? वह प्रजा की सोयी हुई अभिलाषाओं को जगाती, उनकी हृत्तत्रियों को अपने स्वर से कम्पित कर देती। वह उन अमर वीरों की कीर्ति सुनाती जो दीनों की पुकार सुनकर विकल हो जाते थे, उन विदुषियों की महिमा गाती जो कुल-मर्यादा पर मर मिटी थीं। उसकी अनुरक्त ध्वनि सुन कर लोग दिलों को थाम लेते थे, तड़प जाते थे।
सारा तेहरान लैला पर फिदा था। दलितों के लिए वह आशा की दीपक थी, रसिकों के लिए जन्नत की हूर, धनियों के लिए आत्मा की जाग्रति और सत्ताधारियों के लिए दया और धर्म का संदेश। उसकी भौहों के इशारे पर जनता आग में कूद सकती थी। जैसे चैतन्य जड़ को आकर्षित कर लेता है, उसी भांति लैला ने जनता को आकर्षित कर लिया था।
और यह अनुपम सौंदर्य सुविधा की भांति पवित्र, हिम के समान निष्कलंक और नव कु सुम की भांति अनिंद्य था। उसके लिए प्रेम कटाक्ष, एक भेदभरी मुस्कान, एक रसीली अदा पर क्या न हो जाता–कंचन के पर्वत खड़े हो जाते, ऐश्वर्य उपासना करता, रियासतें पैर की धूल चाटतीं, कवि कट जाते, विद्वान घुटने टेकते; लेकिन लैला किसी की ओर आंख उठाकर भी न देखती थी। वह एक वृक्ष की छांह में रहती भिक्षा मांग कर खाती और अपनी हृदयवीणा के राग अलापती थी। वह कवि की सूक्ति की भांति केवल आनंद और प्रकाश की वस्तु थी, भोग की नहीं। वह ऋषियों के आशीर्वाद की प्रतिमा थी, कल्याण में डूबी हुई, शांति में रंगी हुई, कोई उसे स्पर्श न कर सकता था, उसे मोल न ले सकता था।
2
एक दिन संध्या समय तेहरान का घोड़े पर सवार उधर से निकला। लैला गा रही थी। नादिर ने घोड़े की बाग रोक ली और देर तक आत्म–विस्मृत की दशा में खड़ा सुनता रहा। गजल का पहला शेर यह था–
मरा दर्देस्त अंदर दिल, गोयम जवां सोजद,
बगैर दम दरकशम, तरसन कि मगजी ईस्तख्वां सोजद।
फिर वह घोड़े से उतर कर वहीं जमीन पर बैठ गया और सिर झुकाये रोता रहा। तब वह उठा और लैला के पास जाकर उसके कदमों पर सिर रख दिया। लोग अदब से इधर-उधर हट गये।
लैला ने पूछा -तुम कौन हो?
नादिर—तुम्हारा गुलाम।
लैला—मुझसे क्या चाहते हो?
नादिर –आपकी खिदमत करने का हुक्म। मेरे झोपड़े को अपने कदमों से रोशन कीजिए।
लैला—यह मेरी आदत नहीं
शहजादा फिर वहीं बैठ गया और लैला फिर गाने लगी। लेकिन गला थर्राने लगा, मानो वीणा का कोई तार टूट गया हो। उसने नादिर की ओर करुण नेत्रों से देख कर कहा- तुम यहां मत बैठो।
कई आदमियों ने कहा- लैला, हमारे हुजूर शहजादा नादिर हैं।
लैला बेपरवाही से बोली–बड़ी खुशी की बात है। लेकिन यहां शहजादों का क्या काम? उनके लिए महल है, महफिलें हैं और शराब के दौर हैं। मैं उनके लिए गाती हूँ, जिनके दिल में दर्द है, उनके लिए नहीं जिनके दिल में शौक है।
शहजादा न उन्मत्त भाव से कहा–लैला, तुम्हारी एक तान पर अपना सब-कुछ निसार कर सकता हूं। मैं शौक का गुलाम था, लेकिन तुमने दर्द का मजा चखा दिया।
लैला फिर गाने लगी, लेकिन आवाज काबू में न थी, मानो वह उसका गला ही न था।
लैला ने डफ कंधे पर रख लिया और अपने डेरे की ओर चली। श्रोता अपने-अपने घर चले। कुछ लोग उसके पीछे-पीछे उस वृक्ष तक आये, जहां वह विश्राम करती थी। जब वह अपनी झोंपड़ी के द्वार पर पहुंची, तब सभी आदमी विदा हो चुके थे। केवल एक आदमी झोपड़ी से कई हाथ पर चुपचाप खड़ा था।
लैला ने पूछा–तुम कौन हो?
नादिर ने कहा–तुम्हारा गुलाम नादिर।
लैला–तुम्हें मालूम नहीं कि मैं अपने अमन के गोशे में किसी को नहीं आने देती?
नादिर—यह तो देख ही रहा हूं।
लैला –फिर क्यों बैठे हो?
नादिर–उम्मीद दामन पकड़े हुए हैं।
लैला ने कुछ देर के बाद फिर पूछा- कुछ खाकर आये हो?
नादिर–अब तो न भूख है ना प्यास
लैला–आओ, आज तुम्हें गरीबों का खाना खिलाऊं, इसका मजा भी चखा लो।
नादिर इनकार न कर सका। बाज उसे बाजरे की रोटियों में अभूत-पूर्व स्वाद मिला। वह सोच रहा था कि विश्व के इस विशाल भवन में कितना आनंद है। उसे अपनी आत्मा में विकास का अनुभव हो रहा था।
जब वह खा चुका तब लैला ने कहा–अब जाओ। आधी रात से ज्यादा गुजर गयी।
नादिर ने आंखो में आंसू भर कर कहा- नहीं लैला, अब मेरा आसन भी यही जमेगा।
नादिर दिन–भर लैला के नगमे सुनता गलियों में, सड़को पर जहां वह जाती उसके पीछे पीछे घूमता रहाता। रात को उसी पेड़ के नीचे जा कर पड़ा रहता। बादशाह ने समझाया मलका ने समझाया उमर ने मिन्नतें की, लेकिन नादिर के सिर से लैला का सौदा न गया जिन हालो लैला रहती थी उन हालो वह भी रहता था। मलका उसके लिए अच्छे से अच्छे खाने बनाकर भेजती, लेकिन नादिर उनकी ओर देखता भी न था--
लेकिन लैला के संगीत में जब वह क्षुधा न थी। वह टूटे हुए तारों का राग,था जिसमें न वह लोच थ न वह जादू न वह असर। वह अब भी गाती थीर सुननेवाले अब भी आते थे। लेकिन अब वह अपना दिल खुश करने को गाती थी और सुननेवाले विह्वल होकर नही, उसको खुशकरने के लिए आते थे।
इस तरह छ महीने गुजर गये।
एक दिन लैला गाने न गयी। नादिर ने कहा–क्यों लैला आज गाने न चलोगी?
लैला ने कहा-अब कभी न जाउंगा। सच कहना, तुम्हें अब भी मेरे गाने में पहले ही का-सा मजा आता है?
नादिर बोला–पहले से कहीं ज्यादा।
लैला- लेकिन और लोग तो अब पंसद नहीं करते।
नादिर–हां मुझे इसका ताज्जुब है।
लैला–ताज्जुब की बात नहीं। पहले मेरा दिल खुला हुआ
था उसमें सबके लिए जगह थी। वह सबको खुश कर सकता था। उसमें से जो आवाज निकलती थी, वह सबके दिलो में पहुचती थी। अब तुमने उसका दरवाजा बंद कर दिया। अब वहां तुम्हारे सिवा और किसी के काम का नहीं रहा। चलो मै तुम्हारे पीछे पीछे चलुगी। आज से तुम मेरे मालिक हो होती हूं चलो मै तुम्हारे पीछे पीछे चलूगा। आज से तूम मेरे मालिक हो। थोडी सी आग ले कर इस झोपड़ी में लगा दो। इस डफ को उसी में जला दुंगी।
3
तेहरान में घर-घर आनंदोत्सव हो रहा था। आज शहजादा नादिर लैला को ब्याह कर लाया था। बहुत दिनों के बाद उसके दिल की मुराद पुरी हुई थी सारा तेहरान शहजादे पर जान देता था। और उसकी खुशी में शरीक था। बादशाह ने तो अपनी तरफ से मुनादी करवा दी थी कि इस शुभ अवसर पर धन और समय का अपव्यय न किया जाय, केवल लोग मसजिदो में जमा होकर खुदा से दुआ मांगे कि वह और बधू चिरंजीवी हो और सुख से रहें। लेकिन अपने प्यारे शहजादे की शदी में धन और धन से अधिक मूल्यवान समय का मुंह देखना किसी को गवारा न था।
रईसो ने महफिलें सजायी। चिराग। जलो बाजे बजवाये गरीबों ने अपनी डफलियां संभाली और सड़कों पर घूम घूम कर उछलते कूदते। फिरे।
संध्या के समय शहर के सारे अमीर और रईस शहजादे को बधाई से चमकता और मनोल्लास से खिलता हुआ आ कर खड़ा हो गया।
काजी ने अर्ज की–हुजुर पर खुड़स की बरकत हो।
हजारों आदमियों ने कहा- आमीन!
शहर की ललनाएं भी लैला को मुबारकवाद देने आयी। लैला बिल्कुल सादे कपड़े पहने थी। आभूषणों का कहीं नाम न था।
एक महिला ने कहा–आपका सोहाग सदा सलामत रहे।
हजारों कंठों से ध्वनि निकली–आमीन!’
4
कई साल गुजर गये। नादिर अब बादशाह था। और लैला। उसकी मलका। ईरान का शासन इतने सुचारु रूप से कभी न हुआ था। दोनों ही प्रजा के हितैषी थे, दोनों ही उसे सुखी और सम्पन्न देखना चाहते थे। प्रेम ने वे सभी कठिनाइयां दूर कर दी जो लैला को पहले शंकित करती रहती थी। नादिर राजसता का वकील था, लैला प्रजा–सत्ता की लेकिन व्यावारिक रुप से उनमें कोई भेद न पड़ता था। कभी यह दब जाता, कभी वह हट जाती। उनका दाम्पत्य जीवन आर्दश था। नादिर लैला का रुख देखता था, लैला नादिर का। काम से अवकाश मिलता तो दोनो बैठ कर गाते बजाते, कभी नादियों को सैर करते कभी किसी वृक्ष की छांव में बैठे हुए हाफिज की गजले पढते और झुमते। न लैला में अब उतनी सादगी थी न नादिर में अब उतना तकल्लुफ था। नादिर का लैला पर एकाधिपत्य थ जो साधारण बात न थी। जहां बादशाहो की महलसरा में बेगमों के मुहल्ले बसते,थे, दरजनो और कैडियो से उनकी गणना होती थीवहा लैला अकेली थी। उन महलो में अब शफखाने, मदरसे और पुस्तकालय थे। जहां महलसरो का वार्षिक व्यय करोडों तक पहुंचता था, यहां अब हजारों से आगे न बढता था। शेष रुपये प्रजा हित के कामों में खर्च कर दिये जाते,थे। यह सारी कतर व्योत लैला ने की थी। बादशाह नादिर था, पर अख्तियार लैला के हाथों में था।
सब कुंछ था, किंतु प्रजा संतुष्ट न थी उसका असंतोष दिन दिन बढता जाता था। राजसत्तावादियों को भय था। कि अगर यही हाल रहा तो बादशाहत के मिट जाने में संदेह नहीं। जमशेद का लगाया हुआ वृक्ष जिसने हजारों सदियें से आधी और तुफान का मुकाबिला किया। अब एक हसीना के नाजुक पर कातिल हाथों जड़ से उखाड़ा जा रहा है। उधर प्रजा सत्तावादियों कोलैला से जितनी आशाएं,थी सभी दुराशांएं सिद्ध हो रही थीं वे कहते अगर ईरान इस चाल से तरक्की केरास्ते पर चलेगा तो इससे पहलेकि वह मंजिले मकसूद पर पहुंचे, कयामत आ जायगी। दुनिया हवाई जहाजपर बैठी उड़ी जा रही है। और हम अभी ठेलो पर बैठते भी डरते है कि कहीं इसकी हरकत से
दुनिया में भूचाल न आ जाय। दोनो दलो में आये दिन लडाइयों होती रहती थी। न नादिर के समझाने का असर अमीरो पर होता था, न लैला के समझाने का गरीबों पर। सामंत नादिर के खून के प्यासे हो गये, प्रज्ञा लैला की जानी दुश्मन।
5
राज्य में तो यह अशांति फैली हुईथी, विद्रोह की आग दिलों में सुलग रही थीा। और राजभवन में प्रेम का शांतिमय राज्य था, बादशाह और मलका दोनो प्रजा -संतोष की कल्पना में मग्न थे।
रात का समय था। नादिर और लैला आरामगाह में बैठे हुए, शतरंज की बाजी खेाल रहे थे। कमरे में कोाई सजावट न थी, केवल एक जाजिम विछी हुई थी।
नादिर ने लैला का हाथ पकड़कर कहा- बस अब यह ज्यादती नहीं,उ तुम्हारी चाल हो चुंकी। यह देखों, तुम्हारा एक प्यादा पिट गया।
लैला ‘ अच्छा यह शह। आपके सारे पैदल रखे रह गये और बादशाह को शह पड गयी। इसी पर दावा था।
नादिर –तुम्हारे हाथ हारने मे जो मजा है, वह जीतने में नहीं।
लैला-अच्छा, तो गोया आप दिल खुश कर रहे है।‘ शह बचाइए, नहीं दूसरी चाल में मात होती।
नादिर–(अर्दब देकर) अच्छा अब संभल जाना, तुमने मेरे बादशाह की तौहीन की है। एक बार मेरा फर्जी उठा तो तुम्हारे प्यादों का सफाया कर देगा।
लैला-बसंत की भी खबर है। आपको दो बार छोड़ दिया, अबकी हर्गिज न छोडूंगी।
नादिर-अब तक मेरे पास दिलराम (घोड़ा) है, बादशाह को कोई गम नहीं
लैला – अच्छा यह शह? लाइए अपने दिलराम को।’ कहिए अब तो मात हुई?
नादिर-हां जानेमन अब मात हो गयी। जब मैही तुम्हारी आदाओं पर निसार हो गया तब मेरा बादशाह कब बच सकता था।
लैला–बातें न बनाइए, चुपके से इस फरमान पर दस्तखत कर दीजिए जैसा आपने वाद किया था।
यह कह कर लैला ने फरमान निकाला जिसे उसने खुद अपने मोती के से अक्षरो से लिखा था। इसमे अन्न का आयात कर घटाकर आधा कर दिया गया, था। लैला प्रजा को भूली न थी, वह अब भी उनकी हित कामना में संलग्न रहती थी। नादिर ने इस शर्त पर फरमान पर दस्तखत करने का वचन दिया था कि लैला उसे शतरंज में तीन बार मात करे। वह सिद्धहस्त खिलाड़ी था इसे लैला जानती थी, पर यह शतरंज की बाजी न थी, केवल विनोद था। नादिर ने मुस्कारते हुए फरमान पर हस्ताक्षर कर दिये कलम के एक एक चिन्ह से प्रजा की पांच करोड़ वार्षिक दर से मुक्ति हो गयी। लैला का मुख गर्व से आरक्त हो गया। जो काम बरसों के आन्दोलन से न हो सकता था, वह प्रेम कटाक्षों से कुछ ही दिनों में पुरा होगया।
यह सोचकर वह फूली न समाती थी कि जिस वक्त वह फरमान सरकारी पत्रे मं प्रकाशित हो जायेगा। और व्यवस्थापिका सभा के लोगो को इसके दर्शन होंगें, उस वक्त प्रजावादियों को कितना आनंद होगा। लोग मेरा यश गायेगें और मुझे आशीवार्द देगे।
नादिर प्रेम मुग्ध होकर उसके चंद्रमुख की ओर देख रहा था, मानो उसका वश होता तो सौदंर्य की इस प्रतिमा को हृदय में विठा लेता।
6
सहसा राज्य–भवन के द्वार पर शोर मचने लगा। एक क्षण में मालूम हुआ कि जनता का टीडी दल; अस्त्र शस्त्र से सृसज्जित राजद्वार पर खड़ा दीवरो को तोडने की चेष्टा कर रहा हे। प्रतिक्षण शारे बढता जाता था और ऐसी आशंका होती थी कि क्रोधोन्मत्त जनता द्वारों को तोडकर भीतर घूस आयेगी। फिर ऐसा मालूम हुआ कि कुछ लोग सीढिया लगाकर दीवार पर चढ़ रहे है। लैला लज्जा और ग्लानि से सिर झुकाय खड़ी थी उसके मुख से एक शब्द भी न निकलता था। क्या यही वह जनता है, जिनके कष्टों की कथा कहते हुए उसकी वाणी उन्मत्त हो जाती थी? यही वह अशक्त, दलित क्षुधा पीड़ित अत्याचार की वेदा से तड़पती हुई जनता है जिस पर वह अपने को अर्पण कर चुकी थी।
नादिर भी मौन खड़ा था; लेकिन लज्जा से नही, क्रोध स उसका मुख तमतमा उठा था, आंखो से चिरगारियां निकल रही थी बार बार ओठ चबाता और तलवार के कब्जे पर हाथ रखकर रह जाता था वह बार बार लैला की ओर संतप्त नेत्रो से देखता था। जरा इशारे की देर थी। उसका हुक्म पाते ही उसकी सेना इस विद्रोही दल को यो भगा देगी जैसे आंधी। पतों को उड़ा देती है पर लैला से आंखे न मिलती थी।
आखिर वह अधीर होकर बोला-लैला, मै राज सेना को बुलाना चाहता हूं क्या कहती हो?
लैला ने दीनतापूर्ण नेत्रो से देखकर कहा–जरा ठहर जाइए पहले इन लोगो से पूछिए कि चाहते क्या है।
आदेश पाते ही नादिर छत पर चढ़ गया, लैला भी उसक पीछे पीछे ऊपर आ पहुंची। दोनों अब जनता के सम्मुख आकर खड़े हो गये। मशलों के प्रकाश में लोगों न इन दोनो को छत पर खड़े देखा मानो आकाश से देवता उतर आयें हों, सहस्त्रो से ध्वनि निकली–वह खड़ी है लैला वह खड़ी।’ यह वह जनता थी जो लैला के मधुर संगीत पर मस्त हो जाया करती थी।
नादिर ने उच्च स्वर से विद्रोहियों को सम्बोधित किया–ऐ ईरान की बदनसीब रिआया। तुमने शाही महल को क्यो घेर रखा है? क्यों बगावत का झंडा खडा किया है? क्या तुमको मेरा और अपने खुदा का बिल्कुल खौफ किया। है? क्या तुम नहीं जानतें कि मै अपनी आंखों के एक इशारे से तुम्हारी हस्ती खाक में मिला सकता हूं? मै तुम्हे हुक्म देता हुं कि एक लम्हे के अन्दर यहां से चलो जाओं वरना कलामे-पाक की कसम, मै तुम्हारे खून की नदी बहा दूंगा।
एक आदमी ने, जो विद्रोहियों का नेता मालूम होता था, सामने आकर कहा–हम उस वक्त तक न जायेगे, जब तक शाही महल लैला से खाली न हो जायेगा।
नादिर ने बिगड़कर कहा-ओ नाशुक्रो, खुदा से डरो!’ तूम्हे अपनी मलका की शान में ऐसी बेअदबी करते हुए शर्म नही आती!’ जब से लैला तुम्हारी मलका हुई है, उसने तुम्हारे साथ किनती रियायते की है।‘ क्या उन्हें तुम बिलकुल भूल गये? जालिमो वह मलका है, पर वही खना खाती है जो तूम कुत्तों को खिला देते हो, वही कपड़े पहनती है, जो तुम फकीरो को दे देते हो। आकर महलसरा में देखो तुम इसे अपने झोपड़ो ही की तरह तकल्लफु और सजावट से खाली पाओगे। लैला तुम्हारी मलका होकर भी फकीरो की जिंदगी बसर करती है, तुम्हारी खिदमत में हमेशा मस्त रहती है। तुम्हें उसके कदमो की खाक माथे पर लगानी चाहिए आखो का सुरमा बनाना चाहिए। ईरान के तख्त पर कभी ऐसी गरीबो पर जान देने वाली उनके दर्द में शरीक होनेवाली गरीबो पर अपने को निसार करने वाली मलकाने कदम नही रखे और उसकी शान में तुम ऐसी बेहूदा बातें करते हो।’ अफसोस मुझे मालूम हो गया कि तुम जाहिल इन्सानियत से खाली और कमीने हो।’ तुम इसी काबिल हो कि तुम्हारी गरदेन कुन्द छुरी से काटी जायें तुम्हें पैरो तले रौदां जाये...
नादिर बात भी पूरी न कर पाया था कि विद्रोहियों ने एक स्वर से चिल्लाकर कहा-लैला हमारी दुश्मन है, हम उसे अपनी मलका की सुरत में नही देख सकते।
नादिर नेजोर से चिल्लाकर कहा-जालिमो, जरा खामोश हो जाओं, यह देखो वह फरमान है जिस पर लैला ने अभी अभी मुझसे जबरदस्तीर दस्तखत कराये है। आज से गल्ले का महसूल घटाकर आधा कर दिया गया है और तुम्हारे सिर से महसूल का बोझ पांच करोड़ कम हो गया है।
हजारो आदमियों ने शोर मचाया–यह महसूल बहुत पहले बिलकुल माफ हो जाना चाहिए था। हम एक कौड़ी नही दे सकते। लैला, लैला हम उसे अपनी मलका की सुरत में नही देख सकते।
अब बादशाह क्रोध से कापंने लगा। लैला ने सजल नेत्र होकर कहा-अगर रिआया की यही मरजी है कि मैं फिर डफ बजा-बजा कर गाती फिरुं तो मुझे उज्र नहीं, मुझे यकीन है कि मै अपने गाने से एक बार फिर इनके दिल पर हुकूमत कर सकती हूं।
नादिर ने उत्तेजित होकर कहा- लैला, मैं रिआया की तुनुक मिजाजियों का गूलाम नहीं। इससे पहले कि मै तुम्हे अपने पहलू से जूदा करुं तेहरान की गलियां खून से लाल हो जायेगी। मै इन बदमाशो को इनकी शरारत का मजा चखाता हूं।
नादिर ने मीनार पर चढकर खतरे का घंटा बजाया। सारे तेहरान मे उसकी आवाज गूंज उठी, शाही फौज का एक आदमी नजर न आया।
नादिर ने दोबारा घंटा बजाया, आकाश मंडल उसकी झंकार से कम्पित हो गया। तारागण कापं उठे; पर एक भी सैनिक न निकला।
नादिर ने तीससी बार घंटा बजाया पर उसका भी उत्तर केवल एक क्षीण प्रतिध्वनि ने दिया मानो किसी मरने वाले की अतिंम प्रार्थना के शब्द हों।
नादिर ने माथा पीट लिया। समझ गया कि बुरे दिन आ गये। अब भी लैला को जनता के दुराग्रह पर बलिदान करके वह अपनी राजसत्ता की रक्षा कर सकता था, पर लैला उसे प्राणों से प्रिय थी उसने छत पर आकर लैला का हाथ पकड लिया और उसे लिये हुए सदर फाटक से निकला विद्रोहियों ने एक विजय ध्वनि क साथ उनका स्वागत किया, पर सब के सब किसी गुप्त प्ररेणा के वश रास्ते से हट गये।
दोनो चुपचाप तेहरान की गलियों में होते हुए चले जाते, थे। चारों ओर अंधकार था। दुकाने बंदथी बाजारों में सन्नाटा छाया हुआ था। कोई घर से बाहर न निकलता था। फकीरों ने भी मसजिदो में पनाह ले ली थी पर इन दोनो प्राणियो के लिए कोई आश्रय न था। नादिर की कमर में तलवार थी, लैला के हाथ में डफ था उनके विशाल ऐश्वर्य का विलुप्त चिह्न था।
7
पूरा साल गुजर गया। लैला और नादिर देश-विदेश की खाक छानते फिरते थे। समरकंद और बुखारा, बगदाद और हलब, काहिरा और अदन ये सारे देश उन्होंने छान डाले। लैला की डफ फिर जादू करने मेला लगी उसकी आवाज सुनते ही शहर में हलचल मच जाती, आदमीयों का मेला लग जाता आवभगत होने लगती; लेकिन ये दोनो यात्री कहीं एक दिन से अधिक न ठहरते थे। न किसी से कुछ मागंते न किसी के द्वार पर जाते। केवल रुखा-सुखा भोजन कर लेते और कभी किसी वृक्ष के नीचे कभी पर्वत की गुफा में और कभी सड़क के किनारे रात काट देते थे। संसार के कठोर व्यवहार ने उन्हें विरक्त कर दिया था, उसके प्रलोभन से कोसों दूर भागते थे। उन्हे अनुभव हो गया था कि यहां जिसके लिए प्राण अर्पण कर दो वहीं, अपना शत्रु हो जाता है, जिसके साथ भलाई करो, वही बुराई की कमर बांधता है, यहा किसी से दिल न लगाना चाहिए। उसके पास बड़े-बड़े रईसो के निमंत्रण आते उन्हे एक दिन अपना मेहमान बनाने केलिए हजारो मिन्नतें करते; पर लैला किसी की न सुनती। नादिर को अब तक कभी कभी बादशाहत की सनक सवार हो जाती थी। वह चाहता था कि गुप्त रुप से शक्ति संग्रह करके तेहरान पर चढ़ जाऊं और बागियों को परास्त करके अखंड राज्य करुं; पर लैला की उदासीनता देखकर उसे किसी से मिलने जुलने का साहस न होता था। लैला उसकी प्राणेश्वरी थी वह उसी के इशारों पर चलता था।
उधर ईरान में भी अराजकता फैली हुई थी। जनसत्ता से तंग आकर रईसो ने भी फौजे जमा कर ली थी और दोनो दलो मे आये दिन संग्राम होता रहता था। पूरा साल गूजर गया और खेत न जुते देश में भीषण अकाल पड़ा हुआ था,व्यापार शिथिल था, खजाना खाली। दिन–दिन जनता की शक्ति घटती जाती थी और रईसो को जोर बढता जाता था। आखिर यहां तक नौबत पहुंची कि जनता ने हथियार डाल दिये और रईसो ने राजभवन पर अपना अधिकार जमा लिया। । प्रजा के नेताओ को फांसी दे दी गयी, कितने ही कैद कर दिये गये और जनसत्ता का अंत हो गया। शक्तिवादियों को अब नादिर की याद आयी। यह बात अनुभव से सिद्ध हो गयी थी कि देश में प्रजातंत्र स्थापित करने की क्षमता का अभाव है। प्रत्यक्ष के लिए प्रमाण की जरुरत न थी। इस अवसर पर राजसत्ता ही देश का उद्धार कर सकती थी। वह भी मानी हुई बात थी कि लैला और नादिर को जनमत से विशेष प्रेम न होगा। वे सिंहासन पर बैठकर भी रईसो ही के हाथ में कठपुतली बने रहेगें और रईसों को प्रजा पर मनमाने अत्याचार करने का अवसर मिलेगा। अतएव आपस में लोगों ने सलाह की और प्रतिनिधि नादिर को मना लाने के लिये रवाना हुंए।
8
संध्या का समय था। लैला और नादिर दमिश्क में एक वृक्ष के नीचे बैठे हुए थे। आकाशा पर लालिमा छायी हुई थी। और उससे मिली हुई पर्वत मालाओं की श्याम रेखा ऐसी मालूम हो रही थी मानो कमल-दल मुरझा गया हो। लैला उल्लसित नेत्रो से प्रकृति की यह शोभा देख रही थी। नादिर मलिन और चिंतित भाव से लेटा हुआ सामने के सुदुर प्रांत की ओर तृषित नेत्रों से देख रहा था, मानो इस जीवन से तंग आ गया है।
सहसा बहुत दूर गर्द उड़ती हुई दिखाई दी और एक क्षण में ऐसा मालूम हुआ कि कुछ आदमी घोड़ो पर सवार चले आ रहे है। नादिर उठ बैठा और गौर से देखने लगा कि ये कौन आदमी है। अकस्मात वह उठकर खड़ा हो गया। उसका मुख मंडल दीपक की भाति चमक उठा जर्जर शरीर में एक विचित्र स्फुर्ति दौड़ गयी। वह उत्सुकता से बोला–लैला, ये तो ईरान के आदमी, कलामे–पाक की कसम, ये ईरान के आदमी है। इनके लिबास से साफ जाहिए हो रहा है।
लैला–पहले मै, भी उन यात्रियों की ओर देखा और सचेत होकर बोली–अपनी तलवार संभाल लो, शायद उसकी जरुरत पड़े,।
नादिर–नहीं लैला, ईरान केलोग इतने कमीने नहीं है कि अपने बादशाह पर तलवार उठायें।
लैला- पहले मै भी यही समझती थी।
सवारों ने समीप आकर घोड़े रोक लिये। उतकर बड़े अदब से नादिर को सलाम किया। नादिर बहुत जब्त करने पर भी अपने मनोवेग को न रोक सका, दौड़कर उनके गले लिपट गया। वह अब बादशाह न था, ईरान का एक मुसाफिर था। बादशहत मिट गयी थी, पर ईरानियत रोम रोम में भरी हुई थ्री। वे तीनों आदमी इस समय ईरान के विधाता थे। इन्हे वह खूब पहचानता था। उनकी स्वामिभक्ति की वह कई बार परीक्षा ले चुका था। उन्हे लाकर अपने बोरिये पर बैठाना चाहा, लेकिन वे जमीन पर ही बैठे। उनकी दृष्टि से वह बोरिया उस समय सिंहासन था, जिस पर अपने स्वामी के सम्मुख वे कदम न रख सकते थे। बातें होने लगीं, ईरान की दशा अत्यंत शोचनीय थी। लूट मार का बाजार गर्म था, न कोई व्यवस्था थी न व्यवस्थापक थे। अगर यही दशा रही तो शायद बहुत जल्द उसकी गरदन में पराधीनता का जुआ पड़ जाये। देश अब नादिर को ढूंढ रहा था। उसके सिवा कोई दूसरा उस डुबते हुए बेडे को पार नहीं लगा सकता था। इसी आशा से ये लोग उसके पास आये थे।
नादिर ने विरक्त भाव से कहा- एक बार इज्जत ली, क्या अबकी जान लेने की सोची है? मै बड़े आराम से हूं।’ आप मुझे दिक न करें।
सरदारों ने आग्रह करना शुरु किया–हम हुजूर का दामन न छोड़ेगे, यहां अपनी गरदनों पर छुरी फेर कर हुजूर के कदमो पर जान दे देगे। जिन बदमाशों ने आपकी परेशान किया। अब उनका कहीं निशान भी नहीं रहा हम लोगो उन्हें फिर कभी सिर न उठाने देगें ,सिर्फॅ हुजूर की आड़ चाहिए।
नादिर नेबात काटकर कहा-साहबो अगर आप मुझे इस इरादे से ईरान का बादशाह बनाना चाहते है, तो माफ कीजिए। मैने इस सफर मे रिआया की हालत का गौर से मुलाहजा किया है और इस नतीजे पर पहुंचा हूं कि सभी मुल्को में उनकी हालत खराब है। वे रहम के कबिल है ईरान में मुझे कभी ऐसे मौके ने मिले थे। मैं रिआया को अपने दरवारियों की आखों से देखता था। मुझसे आप लोग यह उम्मीद न रखे कि रिआया को लूटकर आपकी जेबें भरुगां। यह अजाब अपनी गरदन पर नही ने सकता। मैं इन्साफ का मीजान बराबर रखूंगा और इसी शर्त पर ईरान चल सकता हूं।
लैला ने मुस्कराते कहा-तुम रिआया का कसूर माफ कर सकते हो, क्योकि उसकी तुमसे कोई दुश्मनी न थी। उसके दांत तो मुझे पर थे। मै उसे कैसे माफ कर सकती हूं।
नादिर ने गम्भीर भाव से कहा-लैला, मुझं यकीन नहीं आता कि तुम्हारे मुंह से ऐसी बातें सुन रहा हूं।
लोगो ने समझा अभी उन्हें भड़काने की जरुरत ही क्या है। ईरान में चलकर देखा जायेगा। दो चार मुखबिरो से रिआया के नाम पर ऐसे उपद्रव खड़े करा देंगे कि इनके सारे ख्याल पलट जायेगें। एक सरदार ने अर्ज की- माजल्लाह; हुजूर यह क्या फरमाते है? क्या हम इतने नादान है कि हुजूरं को इन्साफ के रास्ते से हटाना चाहेगें? इन्साफ हीबादशाह का जौहर है और हमारी दिली आरजू है कि आपका इन्साफ ही नौशेरवां को भी शर्मिदां कर दे,। हमारी मंशा सिर्फ यह थी कि आइंदा से हम रिआया को कभी ऐसा मौका न देगें कि वह हुजूर की शान में बेअदबी कर सके। हम अपनी जानें हुजूर पर निसार करने के लिए हाजिर रहेंगे।
सहसा ऐसा मालूम हुआ कि सारी प्रकृति संगीतमय हो गयी है । पर्वत और वृक्ष, तारे, और चॉँद वायु और जल सभी एक स्वर से गाने लगे। चॉँदनी की निर्मल छटा में वायु के नीरव प्रहार में संगीत की तरंगें उठने लगी। लैला अपना डफ बजा बजा कर गा रही थी। आज मालूम हुआ, ध्वनि ही सृष्टि का मूल है।द पर्वतों पर देवियां निकल निकल कर नाचने लगीं अकाशा पर देवता नृत्य करने लगे। संगीत ने एक नया संसार रच डाला।
उसी दिन से जब कि प्रजा ने राजभवन के द्वार पर उपद्रव मचाया था और लैला के निर्वासन पर आग्रह किया था, लैला के विचारों में क्रांति हो रही थी जन्म से ही उसने जनता के साथ साहनुभूति करना सीखा था। वह राजकर्मचारियें को प्रजा पर अत्याचार करते देखती थी और उसका कोमल हृदय तड़प उठता था। तब धन ऐश्वर्य और विलास से उसे घृणा होने लगती थी। जिसके कारण प्रजा को इतने कष्ट भोगने पड़ते है। वह अपने में किसी ऐशी शक्ति का आह्वाहन करना चाहती थी कि जो आतताइयों के हृदय में दया और प्रजा के हृदय में अभय का संचार करे। उसकी बाल कल्पना उसे एक सिंहासन पर बिठा देती, जहां वह अपनी न्याय नीति से संसार में युगातर उपस्थित कर देती। कितनी रातें उसने यही स्वप्न देखने में काटी थी। कितनी बार वह अन्याय पीड़ियों के सिरहाने बैठकर रोयीथी लेकिन जब एक दिन ऐसा आया कि उसके स्वर्ण स्वप्न आंशिक रीति से पूरे होने लगे तब उसे एक नया और कठोर अनुभव हुआ! उसने देखा प्रजा इतनी सहनशील इतनी दीन और दुर्बल नहीं है, जितना वह समझती थी इसकी अपेक्षा उसमें ओछेपन, अविचार और अशिष्टता की मात्रा कहीं अधिक थी। वह सद्व्यहार की कद्र करना नही जानती, शाक्ति पाकर उसका सदुपयोग नहीं कर सकती। उसी दिन से उसका दिल जनता से फिर गया था।
जिस दिन नादिर और लैला ने फिर तेहरान में पदार्पण किया, सारा नगर उनका अभिवादन करने के लिए निकल पड़ा शहर पर आतंक छाया हुआ था।, चारो ओर करुण रुदन की ध्वनि सुनाई देती थी। अमीरों के मुहल्ले में श्री लोटती फिरती थी गरीबो के मुहल्ले उजड़े हुएथे, उन्हे देखकर कलेजा फटा जाता था। नादिर रो पड़ा, लेकिन लैला के होठों पर निष्ठुर निर्दय हास्य छटा दिखा रहा था।
नादिर के सामने अब एक विकट समय्या थी। वह नित्य देखता कि मै जो करना चाहता हूं वह नही होता और जो नहीं करना चाहता वह होता है और इसका कारण लैला है, पर कुछ कह न सकता था। लैला उसके हर एक काम में हस्तक्षेप करती रहती, थी। वह जनता के उपकार और उद्धार के लिए विधान करता, लैला उसमे कोई न कोई विध्न अवश्य डाल देती और उसे चुप रह जाने के सिवा और कुछ न सुझता लैला के लिए उसने एक बार राज्य का त्याग कर दिया था तब आपति-काल ने लैला की परीक्षा की थी इतने दिनों की विपति में उसे लैला के चरित्र का जो अनुभव प्राप्त हुआ था, वह इतना मनोहर इतना सरस था कि वह लैला मय हो गया था। लैला ही उसका स्वर्ग थी, उसके प्रेम में रत रहना ही उसकी परम अधिलाषा थी। इस लैला के लिए वह अब क्या कुछ न कर सकता था? प्रजा की ओर साम्राज्य की उसके सामने क्या हस्ती थी।
इसी भांति तीन साल बीत गये प्रजा की दशा दिन दिन बिगड़ती ही गयी।
9
एक दिन नादिर शिकर खेलने गया। और साथियों से अलग होकर जंगल में भटकता फिरा यहां तक कि रात हो गयी और साथियों का पता न चला। घर लौटने का भी रास्ता न जानता था। आखिर खुदा का नाम लेकर वह एक तरफ चला कि कहीं तो कोई गांव या बस्ती का नाम निशान मिलेगा! वहां रात, भर पड़ रहुंगा सबेरे लौट जाउंगा। चलते चलते जंगल के दूसरे सिरे पर उसे एक गांव नजर आया। जिसमें मुश्किल से तीन चार घर होगें हा, एक मसजिद अलबत्ता बनी हुई थी। मसजिद मे एक दीपक टिमटिमा रहा था पर किसी आदमी या आदमजात का निशान न था। आधी रात से ज्यादा बीत चुकी थी, इसलिए किसी को कष्ट देना भी उचित न था। नादिर ने घोड़े का एक पेड़ स बाध दिया और उसी मसजिद में रात काटने की ठानी। वहां एक फटी सी चटाई पड़ी हुई थी। उसी पर लेट गया। दिन भर तक सोता रहा; पर किसी की आहट पाकर चौका तो क्या देखता है कि एक बूढा आदमी बैठा नमाज पढ़ रहा है। उसे यह खबर न थी किरात गुजर गयी और यह फजर की नमाज है। वह पड़ा–पड़ा देखता रहा। वृद्ध पुरुष ने नमाज अदा कही फिर वह छाती के सामने अजिल फैलकर दुआ मांगने लगा। दुआ के शब्द सुनकर नादिर का खून सर्द हो गया। वह दुआ उसके राज्यकाल की ऐसी तीव्र, ऐसी वास्तिवक ऐसी शिक्षाप्रद आलोचना थी जो आज तक किसी ने न की थी उसे अपने जीवन में अपना अपयश सुनने का अवसर प्राप्त हुआ। वह यह तो जानता था कि मेरा शासन आदर्श नहीं है, लेकिन उसने कभी यह कल्पना न की थी कि प्रजा की विपति इतनी असत्य हो गयी है। दुआ यह थी-
‘‘ए खुदा! तू ही गरीबो का मददगार और बेकसों का सहारा है।
तू इस जालिम बादशह के जुल्म देखता है और तेरा वहर उस पर नहीं गिरता। यह बेदीन काफिर एक हसीन औरत की मुहब्बत में अपने को इतना भूल गया है कि न आखों से, देखता है, न कानो से सुनता है। अगर देखता है तो उसी औरत की आंखें से सुनता है तो उसी औरत के कानो से अब यह मुसीबत नहीं सही जाती। या तो तू उस जालिम को जहन्नुम पहुंचा दे; या हम बेकसों को दुनिया से उठा ले। ईरान उसके जुल्म से तंग आ गया है। और तू ही उसके सिर से इस बाला को टाल सकता है।’
बूढें ने तो अपनी छ़डी संभाली और चलता हुआ, लेकिन नादिर मृतक की भातिं वहीं पड़ा रहा मानों उसे पर बिजली गिर पड़ी हों।
10
एक सप्ताह तक नादिर दरबार में न आया, न किसी कर्मचारी को अपने पास आने की आज्ञा दी। दिन केदिन अन्दर पड़ा सोचा करता कि क्या करुं। नाम मात्र को कुछ खा लेता। लैला बार बार उसके पास जाती और कभी उसका सिर अपनी जांघ पर रखकर कभी उसके गले में बाहें डालकर पूछती–तुम क्यों इतने उदास और मलिन हो। नादिरा उसे देखकर रोने लगता; पर मुंह से कुछ न कहता। यश या लैला, यही उसके सामने कठिन समस्या थी। उसक हृदय में भीषण द्वन्द्व रहाता और वह कुद निश्चय न कर सकता था। यश प्यारा था; पर लैला उससे भी प्यारी थी वह बदनाम होकर जिंदा रह सकता था। लैला उसके रोम रोम में व्याप्त थी।
अंत को उसने निश्चय कर लिया–लैला मेरी है मै लैला का हूं। न मै उससे अलग न वह मुझेस जुदा। जो कुछ वह करती है मेरा है, जो मै करता हू। उसका है यहां मेरा और तेरा का भेद ही कहां? बादशाहत नश्वार है प्रेम अमर । हम अनंत काल तक एक दूसरे के पहलू में बैठे हुए स्वर्ग के सुख भोगेगें। हमारा प्रेम अनंत काल तक आकाश में तारे की भाति चमकेगा।
नादिर प्रसन्न होकर उठा। उसका मुख मंडल विजय की लालिमा से रंजित हो रहा था। आंखों में शौर्य टपका पड़ता था। वह लैला के प्रेमका प्याला पीने जा रहा था। जिसे एक सप्ताह से उसने मुंह नहीं लगाया था। उसका हृदय उसी उमंग से उछता पड़ताथा। जो आज से पांच साल पहले उठा करती थी। प्रेम का फूल कभी नही मुरझाता प्रेम की नीदं कभी नहीं उतरती।
लेकिन लैला की आरामगाह के द्वार बंद थे और उसका उफ जो द्वार पर नित्य एक खूंटी से लटका रहता था, गायब था। नादिर का कलेजा सन्न-सा हो गया। द्वार बदं रहने का आशय तो यह हो सकता हे कि लैला बाग में होगी; लेकिन उफ कहां गया? सम्भव है, वह उफ लेकर बाग में गयी हो, लेकिन यह उदासी क्यो छायी है? यह हसरत क्यो बरस रही है।’
नादिर ने कांपते हुए हाथो से द्वार खोल दिया। लैला अंदर न थी पंगल बिछा हुआ था, शमा जल रही थी, वजू का पानी रखा हुआथा। नादिर के पावं थर्राने लगे। क्या लैला रात को भी नहीं सोती? कमरे की एक एक बस्तु में लैला की याद थी, उसकी तस्वीर थी ज्योति-हीन नेत्र।
नादिर का दिल भर आया। उसकी हिम्मत न पड़ी कि किसी से कुछ पूछे। हृदय इतना कातर हो गया कि हतबुद्धि की भांति फर्श पर बैठकर बिलख-बिलख कर रोने लगा। जब जरा आंसू थमे तब उसने विस्तर को सूघां कि शायद लैला के स्पर्श की कुछ गंध आये; लेकिन खस और गुलाब की महक क सिवा और कोई सुगंध न थी।
साहसा उसे तकिये के नीचे से बाहर निकला हुआ एक कागज का पुर्जा दिखायी दिया। उसने एक हाथ से कलेजे को सभालकर पुर्जा निकाल लिया और सहमी हुई आंखो से उसे देखा। एक निगाह में सब कुछ मालूम हो गया। वह नादिर की किस्मत का फैसला था। नादिर के मुंह से निकला, हाय लैला; और वह मुर्छित होकर जमीन पर गिर पड़ा। लैला ने पुर्जे में लिखा था-मेरे प्यारे नादिर तुम्हारी लैला तुमसे जुदा होती है। हमेशा के लिए । मेरी तलाश मत करना तुम मेरा सुराग न पाओगे । मै तुम्हारी मुहब्बत की लौड़ी थी, तुम्हारी बादशाहत की भूखी नहीं। आज एक हफते से देख रही हूं तुम्हारी निगाह फिरी हुई है। तुम मुझसे नहीं बोलते, मेरी तरफ आंख उठाकर नहीं देखते। मुझेसे बेजार रहते हो। मै किन किन अरमानों से तुम्हारे पास जाती हूं और कितनी मायूस होकर लौटती हूं इसका तुम अंदाज नहीं कर सकते। मैने इस सजा के लायक कोई काम नहीं किया। मैने जो कुछ है, तुम्हारी ही भलाई केखयाल से। एक हफता मुझे रोते गुजर गया। मुझे मालूम हो रहा है कि अब मै तुम्हारी नजरों से गिर गयी, तुम्हारे दिल से निकाल दी गयी। आह! ये पांच साल हमेशा याद रहेगें, हमेशा तड़पाते रहेंगें! यही डफ ले कर आयी थी, वही लेकर जाती हूं पांच साल मुहब्बत के मजे उठाकर जिंदगी भर केलिए हसरत का दाग लिये जाती हूं। लैला मुहब्बत की लौंडी थी, जब मुहब्बत न रही, तब लैला क्योंकर रहती? रूखसत!’
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