पंडित हृदयनाथ अयोध्या के एक सम्मानित पुरूष थे। धनवान तो नहीं लेकिन खाने पीने से खुश थे। कई मकान थे, उन्ही के किराये पर गुजर होता था। इधर किराये बढ गये थे, उन्होंने अपनी सवारी भी रख ली थी। बहुत विचार शील आदमी थे, अच्छी शिक्षा पायी थी। संसार का काफी तरजुरबा था, पर क्रियात्मक शकित् से व्रचित थे, सब कुछ न जानते थे। समाज उनकी आंखों में एक भयंकर भूत था जिससे सदैव डरना चाहिए। उसे जरा भी रूष्ट किया तो फिर जाने की खैर नहीं। उनकी स्त्री जागेश्वरी उनका प्रतिबिम्ब, पति के विचार उसके विचार और पति की इच्छा उसकी इच्छा थी, दोनों प्राणियों में कभी मतaभेद न होता था। जागेश्चरी शिव की उपासक थी। हृदयनाथ वैष्णव थे, दोनो धर्मनिष्ट थे। उससे कहीं अधिक , जितने समान्यत: शिक्षित लोग हुआ करते है। इसका कदाचित् यह कारण था कि एक कन्या के सिवा उनके और कोई सनतान न थी। उनका विवाह तेरहवें वर्ष में हो गया था और माता-पिता की अब यही लालसा थी कि भगवान इसे पुत्रवती करें तो हम लोग नवासे के नाम अपना सब-कुछ लिख लिखाकर निश्चित हो जायें।
किन्तु विधाता को कुछ और ही मन्जूर था। कैलाश कुमारी का अभी गौना भी न हुआ था, वह अभी तक यह भी न जानने पायी थी कि विवाह का आश्य क्या है कि उसका सोहाग उठ गया। वैधव्य ने उसके जीवन की अभिलाषाओं का दीपक बुझा दिया।
माता और पिता विलाप कर रहे थे, घर में कुहराम मचा हुआ था, पर कैलाशकुमारी भौंचक्की हो-हो कर सबके मुंह की ओर ताकती थी। उसकी समझ में यह न आता था कि ये लोग रोते क्यों हैं। मां बाप की इकलौती बेटी थी। मां-बाप के अतिरिक्त वह किसी तीसरे व्यक्ति को उपने लिए आवश्यक न समझती थी। उसकी सुख कल्पनाओं में अभी तक पति का प्रवेश न हुआ था। वह समझती थी, स्त्रीयां पति के मरने पर इसलिए राती है कि वह उनका और बच्चों का पालन करता है। मेरे घर में किस बात की कमी है? मुझे इसकी क्या चिन्ता है कि खायेंगे क्या, पहनेगें क्या? मुढरे जिस चीज की जरूरत होगी बाबूजी तुरन्त ला देंगे, अम्मा से जो चीज मागूंगी वह दे देंगी। फिर रोऊं क्यों?वह अपनी मां को रोते देखती तो रोती, पती के शोक से नहीं, मां के प्रेम से । कभी सोचती, शायद यह लोग इसलिए रोते हैं कि कहीं मैं कोई ऐसी चीज न मांग बैठूं जिसे वह दे न सकें। तो मै ऐसी चीज मांगूगी ही क्यो? मै अब भी तो उन से कुछ नहीं मांगती, वह आप ही मेरे लिए एक न एक चीज नित्य लाते रहते हैं? क्या मैं अब कुछ और हो जाऊगीं? इधर माता का यहा हाल था कि बेटी की सूरत देखते ही आंखों से आंसू की झडी लग जाती। बाप की दशा और भी करूणाजनक थी। घर में आना-जाना छोड दिया। सिर पर हाथ धरे कमरे में अकेले उदास बैठे रहते। उसे विशेष दु:ख इस बात का था कि सहेलियां भी अब उसके साथ खेलने न आती। उसने उनके घर लाने की माता से आज्ञा मांगी तो फूट-फूट कर रोने लगीं माता-पिता की यह दशा देखी तो उसने उनके सामने जाना छोड दिया, बैठी किस्से कहानियां पढा करती। उसकी एकांतप्रियता का मां-बाप ने कुछ और ही अर्थ समझा। लडकी शोक के मारे घुली जाती है, इस वज्राघात ने उसके हृदय को टुकडे-टुकडे कर डाला है।
एक दिन हृदयनाथ ने जागेश्वरी से कहा—जी चाहता है घर छोड कर कहीं भाग जाऊं। इसका कष्ट अब नहीं देखा जाता।
जागेश्वरी—मेरी तो भगवान से यही प्राथर्ना है कि मुझे संसार से उठा लें। कहां तक छाती पर पत्थर कीस सिल रखूं।
हृदयनाथ—किसी भातिं इसका मन बहलाना चाहिए, जिसमें शोकमय विचार आने ही न पायें। हम लोंगों को दु:खी और रोते देख कर उसका दु:ख और भी दारूण हो जाता है।
जागेश्वरी—मेरी तो बुद्धि कुछ काम नहीं करती।
हृदयनाथ—हम लोग यों ही मातम करते रहे तो लडंकी की जान पर बन जायेगी। अब कभी कभी थिएटर दिखा दिया, कभी घर में गाना-बजाना करा दिया। इन बातों से उसका दिल बहलता रहेगा।
जागेशवरी—मै तो उसे देखते ही रो पडती हूं। लेकिन अब जब्त करूंगी तुम्हारा विचार बहुत अच्छा है। विना दिल बहलाव के उसका शोक न दूर होगा।
हृदयनाथ—मैं भी अब उससे दिल बहलाने वाली बातें किया करूगां। कल एक सैरबीं लाऊगा, अच्छे-अच्छे दृश्य जमा करूगां। ग्रामोफोन तो अज ही मगवाये देता हूं। बस उसे हर वक्त किसी न किसी कात में लगाये रहना चाहिए। एकातंवास शोक-ज्वाला के लिए समीर के समान है।
उस दिन से जागेश्वरी ने कैलाश कुमारी के लिए विनोद और प्रमोद के समान लमा करनेशुरू किये। कैलासी मां के पास आती तो उसकी आंखों में आसू की बूंदे न देखती, होठों पर हंसी की आभा दिखाई देती। वह मुस्करा कर कहती –बेटी, आज थिएटर में बहुत अच्छा तमाशा होने वाला है, चलो देख आयें। कभी गंगा-स्नान की ठहरती, वहां मां-बेटी किश्ती पर बैठकर नदी में जल विहार करतीं, कभी दोनों संध्या-समय पाकै की ओर चली जातीं। धीरे-धीरे सहेलियां भी आने लगीं। कभी सब की सब बैठकर ताश खेलतीं। कभी गाती-बजातीं। पण्डित हृदय नाथ ने भी विनोद की सामग्रियां जुटायीं। कैलासी को देखते ही मग्न होकर बोलते—बेटी आओ, तुम्हें आज काश्मीर के दृश्य दिखाऊं: कभी ग्रामोफोन बजाकर उसे सुनाते। कैलासी इन सैर-सपाटों का खूब आन्नद उठाती। अतने सुख से उसके दिन कभी न गुजरे थे।
2
इस भांति दो वर्ष बीत गये। कैलासी सैर-तमाशे की इतनी आदि हो गयी कि एक दिन भी थिएटर न जाती तो बेकल-ससी होने लगती। मनोरंजन नवीननता का दास है और समानता का शत्रु। थिएटरों के बाद सिनेमा की सनक सवार हुई। सिनेमा के बाद मिस्मेरिज्म और हिपनोटिज्म के तमाशों की सनक सवार हुई। सिनेमा के बाद मिस्मेरिज्म और हिप्नोटिज्म के तमाशों की। ग्रामोफोन के नये रिकार्ड आने लगे। संगीत का चस्का पड गया। बिरादरी में कहीं उत्सव होता तो मां-बेटी अवश्स्य जातीं। कैलासी नित्य इसी नशे में डूबी रहती, चलती तो कुछ गुनगुनती हुई, किसी से बाते करती तो वही थिएटर की और सिनेमा की। भौतिक संसार से अब कोई वास्ता न था, अब उसका निवास कल्पना संसार में था। दूसरे लोक की निवासिन होकर उसे प्राणियों से कोई सहानुभूति न रहीं, किसी के दु:ख पर जरा दया न आती। स्वभाव में उच्छृंखलता का विकास हुआ, अपनी सुरूचि पर गर्व करने लगी। सहेलियों से डींगे मारती, यहां के लोग मूर्ख है, यह सिनेमा की कद्र क्या करेगें। इसकी कद्र तो पश्चिम के लोग करते है। वहां मनोरंजन की सामाग्रियां उतनी ही आवश्यक है जितनी हवा। जभी तो वे उतने प्रसनन-चित्त रहते है, मानो किसी बात की चिंता ही नहीं। यहां किसी को इसका रस ही नहीं। जिन्हें भगवान ने सामर्थ्य भी दिया है वह भी सरंशाम से मुह ढांक कर पडे रहमे हैं। सहेलियां कैलासी की यह गर्व-पूर्ण बातें सुनतीं और उसकी और भी प्रशंसा करतीं। वह उनका अपमान करने के आवेश में आप ही हास्यास्पद बन जाती थी।
पडोसियों में इन सैर-सपाटों की चर्चा होने लगी। लोक-सम्मति किसी की रिआयत नहीं करती। किसी ने सिर पर टोपी टेढी रखी और पडोसियों की आंखों में खुबा कोई जरा अकड कर चला और पडोसियों ने अवाजें कसीं। विधवा के लिए पूजा-पाठ है, तीर्थ-व्रत है, मोटा खाना पहनना है, उसे विनोदऔर विलास, राग और रंग की क्या जरूरत? विधाता ने उसके द्वार बंद रि दिये है। लडकी प्यारी सही, लेकिन शर्म और हया भी कोई चीज होती है। जब मां-बाप ही उसे सिर चढाये हुए है तो उसका क्या दोष? मगर एक दिन आंखे खुलेगी अवश्य।महिलाएं कहतीं, बाप तो मर्द है, लेकिन मां कैसी है। उसको जरा भी विचार नहीं कि दुनियां क्या कहेगी। कुछ उन्हीं की एक दुलारी बेटी थोडे ही है, इस भांतिमन बढाना अच्छा नहीं।
कुद दिनों तक तो यह खिचडी आपस में पकती रही। अंत को एक दिन कई महिलाओं ने जागेश्वरी के घर पदार्पण किया। जागेश्वरी ने उनका बडा आदर-सत्कार किया। कुछ देर तक इधर-उधर की बातें करने के बाद एक महिला बोली—महिलाएं रहस्य की बातें करने में बहुत अभ्यस्त होती है—बहन, तुम्हीं मजे में हो कि हंसी-खुसी में दिन काट देती हो। हमुं तो दिन पहाड हो जाता है। न कोई काम न धंधा, कोई कहां तक बातें करें?
दूसरी देवी ने आंखें मटकाते हुए कहा—अरे, तो यह तो बदे की बात है। सभी के दिन हंसी-खुंशी से कटें तो रोये कौन। यहां तो सुबह से शाम तक चक्की-चूल्हे से छुट्टी नहीं मिलती: किसी बच्चे को दस्त आ रहें तो किसी को ज्वर चढा हुआ है: कोई मिठाइयों की रट कहा है: तो कोई पैसो के लिए महानामथ मचाये हुए है। दिन भर हाय-हाय करते बीत जाता है। सारे दिन कठपुतलियों की भांति नाचती रहती हूं।
तीसरी रमणी ने इस कथन का रहस्यमय भाव से विरोध किया—बदे की बात नहीं, वैसा दिल चाहिए। तुम्हें तो कोई राजसिंहासन पर बिठा दे तब भी तस्कीन न होगी। तब और भी हाय-हाय करोगी।
इस पर एक वृद्धा ने कहा—नौज ऐसा दिल: यह भी कोई दिल है कि घर में चाहे आग लग जाय, दुनिया में कितना ही उपहास हो रहा हो, लेकिन आदमी अपने राग-रंग में मस्त रह। वह दिल है कि पत्थर : हम गृहिणी कहलाती है, हमारा काम है अपनी गृहस्थी में रत रहना। आमोद-प्रमोद में दिन काटना हमारा काम नहीं।
और महिलाओं ने इन निर्दय व्यंग्य पर लज्जित हो कर सिर झुका लिया। वे जागेश्वरी की चटुकियां लेना चाहती थीं। उसके साथ बिल्ली और चूहे की निर्दयी क्रीडा करना चाहती थीं। आहत को तडपाना उनका उद्देश्य था। इस खुली हुई चोट ने उनके पर-पीडन प्रेम के लिए कोई गुंजाइश न छोडी: किंतु जागेश्वरी को ताडना मिल गयी। स्त्रियों के विदा होने के बाद उसने जाकर पति से यह सारी कथा सुनायी। हृदयनाथ उन पुरूषों में न थे जो प्रत्येक अवसर पर अपनी आत्मिक स्वाधीनता का स्वांग भरते है, हठधर्मी को आत्म-स्वातन्त्रय के नाम से छिपाते है। वह सचिन्त भाव से बोले---तो अब क्या होगा?
जागेश्वरी—तुम्हीं कोई उपाय सोचो।
हृदयनाथ—पडोसियों ने जो आक्षेप किया है वह सवर्था उचित है। कैलाशकुमारी के स्वभाव में मुझें एक सविचित्र अन्तर दिखाई दे रहा है। मुझे स्वंम ज्ञात हो रहा है कि उसके मन बहलाव के लिए हम लोंगों ने जो उपाय निकाला है वह मुनासिब नहीं है। उनका यह कथन सत्य है कि विधवाओं के लिए आमोद-प्रामोद वर्जित है। अब हमें यह परिपाटी छोडनी पडेगी।
जागेश्वरी—लेकिन कैलासी तो अन खेल-तमाशों के बिना एक दिन भी नहीं रह सकती।
हृदयनाथ—उसकी मनोवृत्तियों को बदलना पडेगा।
3
शनै:शैने यह विलोसोल्माद शांत होने लगा। वासना का तिरस्कार किया जाने लगा। पंडित जी संध्या समय ग्रमोफोन न बजाकर कोई धर्म-ग्रंथ सुनते। स्वाध्याय, संसम उपासना में मां-बेटी रत रहने लगीं। कैलासी को गुरू जी ने दीक्षा दी, मुहल्ले और बिरादरी की स्त्रियां आयीं, उत्सव मनाया गया।
मां-बेटी अब किश्ती पर सैर करने के लिए गंगा न जातीं, बल्कि स्नान करने के लिए। मंदिरो में नित्य जातीं। दोनां एकादशी का निर्जल व्रम रखने लगीं। कैलासी को गुरूजी नित्य संध्या-समय धर्मोपदेश करते। कुछ दिनों तक तो कैलासी को यह विचार-परिर्वतन बहुत कष्टजनक मालूम हुआ, पर धर्मनिष्ठा नारियों का स्वाभाविक गुण है, थोडे ही दिनो में उसे धर्म से रूची हो गयी। अब उसे अपनी अवस्था का ज्ञान होने लगा था। विषय-वासना से चित्त आप ही आप खिंचने लगा। पति का यथार्थ आशय समझ में आने लगा था। पति ही स्त्री का सच्चा पथ प्रदर्शक और सच्चा सहायक है। पतिविहीन होना किसी घोर पाप का प्रायश्चित है। मैने पूर्व-जन्म में कोई अकर्म किया होगा। पतिदेव जीवित होते तो मै फिर माया में फंस जाती। प्रायश्चित कर अवसर कहां मिलता। गुरूजी का वचन सत्य है कि परमात्मा ने तुम्हें पूर्व कर्मों के प्रायश्चित का अवसर दिया है। वैधव्य यातना नहीं है, जीवोद्धर का साधन है। मेरा उद्धार त्याग, विराग, भक्ति और उपासना से होगा।
कुछ दिनों के बाद उसकी धार्मिक वृत्ति इतनी प्रबल हो गयी, कि अन्य प्राणियों से वह पृथक् रहने लगी। किसी को न छूती, महरियों से दूर रहती, सहेलियों से गले तक न मिलती, दिन में दो-दो तीन-तीन बार स्नान करती, हमेशा कोई न कोई धर्म-ग्रन्थ पढा करती। साधु –महात्माओं के सेवा-सत्कार में उसे आत्मिक सुख प्राप्त होता। जहां किसी महात्मा के आने की खबर पाती, उनके दर्शनों के लिए कवकल हो जाती। उनकी अमृतवाणी सुनने से जी न भरता। मन संसार से विरक्त होने लगा। तल्लीनता की अवस्था प्राप्त हो गयी। घंटो ध्यान और चिंतन में मग्न रहती। समाजिक बंधनो से घृण हो गयी। घंटो ध्यान और चिंतन में मग्न रहती। हृदय स्वाधिनता के लिए लालायित हो गया: यहां तक कि तीन ही बरसों में उसने संन्यास ग्रहण करने का निश्चय कर लिया।
मां-बाप को यह समाचार ज्ञात हुआ ता होश उड गये। मां बोली—बेटी, अभी तुम्हारी उम्र ही क्या है कि तुम ऐसी बातें सोचती हो।
कैलाशकुमारी—माया-मोह से जितनी जल्द निवृत्ति हो जाय उतना ही अच्छा।
हृदयनाथ—क्या अपने घर मे रहकर माया-मोह से मुक्त नहीं हो सकती हो? माया-मोह का स्थान मन है, घर नहीं।
जागेश्वरी—कितनी बदनामी होगी।
कैलाशकुमारी—अपने को भगवान् के चरणों पर अर्पण कर चुकी तो बदनामी क्या चिंता?
जागेश्वरी—बेटी, तुम्हें न हो , हमको तो है। हमें तो तुम्हारा ही सहरा है। तुमने जो संयास लिया तो हम किस आधार पर जियेंगे?
कैलाशकुमारी—परमात्मा ही सबका आधार है। किसी दूसरे प्राणी का आश्रय लेना भूल है।
दूसरे दिन यह बात मुहल्ले वालों के कानों में पहुंच गयी। जब कोई अवस्था असाध्य हो जाती है तो हम उस पर व्यंग करने लगते है। ‘यह तो होना ही था, नयी बात क्या हुई, लडिकियों को इस तरह स्वछंद नहीं कर दिया जाता, फूले न समाते थे कि लडकी ने कुल का नाम उज्जवल कर दिया। पुराण पढती है, उपनिषद् और वेदांत का पाठ करती है, धार्मिक समस्याओं पर ऐसी-ऐसी दलीलें करती है कि बडे-बडे विद्वानों की जबान बंद हो जाती है तो अब क्यों पछताते है?’ भद्र पुरूषों में कई दिनों तक यही आलोचना हाती रही। लेकिन जैसे अपने बच्चे के दौडते-दौडते –धम से गिर पडने पर हम पहले क्रोध के आवेश में उसे झिडकियां सुनाते है, इसके बाद गोद में बिठाकर आंसू पोछतें और फुसलाने का लगते है: उसी तरह इन भद्र पुरूषों ने व्य्रग्य के बाद इस गुत्थी के सुलझाने का उपाय सोचना शुरू किया। कई सज्जन हृदयनाथ के पास आये और सिर झुकाकर बैठ गये। विषय का आरम्भ कैसे हो?
कई मिनट के बाद एक सज्जन ने कहा –सुना है डाक्टर गौड का प्रस्ताव आज बहुमत से स्वीकृत हो गया।
दूसरे महाश्य बोले—यह लोग हिंदू-धर्म का सर्वनाश करके छोडेगें। कोई क्या करेगा, जब हमारे साधु-महात्मा, हिंदू-जाति के स्तंभ है, इतने पतित हो गए हैं कि भोली-भाली युवतियों को बहकाने में संकोच नहीं करते तो सर्वनाश होनें में रह ही क्या गया।
हृदयनाथ—यह विपत्ति तो मेरे सिर ही पडी हुई है। आप लोगों को तो मालूम होगा।
पहले महाश्य –आप ही के सिर क्यों, हम सभी के सिर पडी हुई है।
दूसरो महाश्य –समस्त जाति के सिर कहिए।
हृदयनाथ—उद्धार का कोई उपाय सोचिए।
पहले महाश्य—अपने समझाया नहीं?
हृदयनाथ—समझा के हार गया। कुछ सुनती ही नहीं।
तीसरे महाश्य—पहले ही भूल हुई। उसे इस रास्ते पर उतरना ही नहीं चाहिए था।
पहले महाशय—उस पर पछताने से क्या होगा? सिर पर जो पडी है, उसका उपाय सोचना चाहिए। आपने समाचार-पत्रों में देखा होगा, कुछ लोगों की सलाह है कि विधवाओं से अध्यापको का काम लेना चाहिए। यद्यपि मैं इसे भी बहुत अच्छा नहीं समझता,पर संन्यासिनी बनने से तो कहीं अच्छा है। लडकी अपनी आंखों के सामने तो रहेगी। अभिप्राय केवल यही है कि कोई ऐसा काम होना चाहिए जिसमें लडकी का मन लगें। किसी अवलम्ब के बिना मनुष्य को भटक जाने की शंका सदैव बनी रहती है। जिस घर में कोई नहीं रहता उसमें चमगादड बसेरा कर लेते हैं।
दूसरे महाशय –सलाह तो अच्छी है। मुहल्ले की दस-पांच कन्याएं पढने के लिए बुला ली जाएं। उन्हे किताबें, गुडियां आदि इनाम मिलता रहे तो बडे शौक से आयेंगी। लडकी का मन तो लग जायेगा।
हृदयनाथ—देखना चाहिए। भरसक समझाऊगां।
ज्यों ही यह लोग विदा हुए: हृदयनाथ ने कैलाशकुमारी के सामने यह तजवीज पेश की कैलासी को सुन्यस्त के उच्च पद के सामने अध्यापिका बनना अपमानजनक जान पडता था। कहां वह महात्माओं का सत्संग, वह पर्वतो की गुफा, वह सुरम्य प्राकृतिक दृश्य वहहिमराशि की ज्ञानमय ज्योति, वह मानसरावर और कैलास की शुभ्र छटा, वह आत्मदर्शन की विशाल कल्पनाएं, और कहां बालिकाओं को चिडियों की भांति पढाना। लेकिन हृदयनाथ कई दिनों तक लगातार सेवा धर्म का माहातम्य उसके हृदय पर अंकित करते रहे। सेवा ही वास्तविक संन्यस है। संन्यासी केवल अपनी मुक्ति का इच्छुक होता है, सेवा व्रतधरी अपने को परमार्थ की वेदी पर बलि दे देता है। इसका गौरव कहीं अधिक है। देखो, ऋषियों में दधीचि का जो यश है, हरिश्चंद्र की जो कीर्ति है, सेवा त्याग है, आदि। उन्होंने इस कथन की उपनिषदों और वेदमंत्रों से पुष्टि की यहां तक कि धीरे-धीरे कैलासी के विचारों में परिवतर्न होने लगा। पंडित जी ने मुहल्ले वालों की लडकियों को एकत्र किया, पाठशाला का जन्म हो गया। नाना प्रकार के चित्र और खिलौने मंगाए। पंडित जी स्वंय कैलाशकुमारी के साथ लडकियों को पढाते। कन्याएं शौक से आतीं। उन्हे यहां की पढाई खेल मालूम होता। थोडे ही िदनों में पाठशाला की धूम हो गयी, अन्य मुहल्लों की कन्याएं भी आने लगीं।
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कैलास कुमारी की सेवा-प्रवृत्ति दिनों-दिन तीव्र होने लगी। दिन भर लडकियों को लिए रहती: कभी पढाती, कभी उनके साथ खेलती, कभी सीना-पिरोना सिखाती। पाठशाला ने परिवार का रूप धारण कर लिया। कोई लडकी बीमार हो जाती तो तुरन्त उसके घर जाती, उसकी सेवा-सुश्रूषा करती, गा कर या कहानियां सुनाकर उसका दिल बहलाती।
पाठशाला को खुले हुए साल-भर हुआ था। एक लडकी को, जिससे वह बहुत प्रेम करती थी, चेचक निकल आयी। कैलासी उसे देखने गई। मां-बाप ने बहुत मना किया, पर उसने न माना। कहा, तुरन्त लौट आऊंगी। लडकी की हालत खराब थी। कहां तो रोते-रोते तालू सूखता था, कहां कैलासी को देखते ही सारे कष्ट भाग गये। कैलासी एक घंटे तक वहां रही। लडकी बराबर उससे बातें करती रही। लेकिन जब वह चलने को उठी तो लडकी ने रोना शुरू कर दिया। कैलासी मजबूर होकर बैठ गयी। थोडी देर बाद वह फिर उठी तो फिर लडकी की यह दशा हो गयी। लडकी उसे किसी तरह छोडती ही न थी। सारा दिन गुजर गया। रात को भी रात को लडकी ने जाने न दियां। हृदयनाथ उसे बुलाने को बार-बार आदमी भेजते, पर वह लडकी को छोडकर न जा सकती। उसे ऐसी शंका होती थी कि मैं यहां से चली और लडकी हाथ से गयी। उसकी मां विमाता थी। इससे कैलासी को उसके ममत्व पर विश्वास न होता था। इस प्रकार तीन दिनों तक वह वहां रही। आठों पहर बालिका के सिरहाने बैठी पंखा झ्लती रहती। बहुत थक जाती तो दीवार से पीठ टेक लेती। चौथे दिन लडकी की हालत कुछ संभलती हुई मालूम हुई तो वह अपने घर आयी। मगर अभी स्नान भी न करने पायी थी कि आदमी पहुंचा—जल्द चलिए, लडकी रो-रो कर जान दे रही है।
हृदयनाथ ने कहा—कह दो, अस्पताल से कोई नर्स बुला लें।
कैलसकुमारी-दादा, आप व्यर्थ में झुझलाते हैं। उस बेचारी की जान बच जाय, मै तीन दिन नहीं, तीन महिने उसकी सेवा करने को तैयार हूं। आखिर यह देह किस काम आएगी।
हृदयनाथ—तो कन्याएं कैसे पढेगी?
कैलासी—दो एक दिन में वह अच्छी हो जाएगी, दाने मुरझाने लगे हैं, तब तक आप लरा इन लडकियों की देखभाल करते रहिएगा।
हृदयनाथ—यह बीमारी छूत फैलाती है।
कैलासी—(हंसकर) मर जाऊंगी तो आपके सिर से एक विपत्ति टल जाएगी। यह कहकर उसने उधर की राह ली। भोजन की थाली परसी रह गयी।
तब हृदयनाथ ने जागेश्वरी से कहा---जान पडता है, बहुत जल्द यह पाठशाला भी बन्द करनी पडेगी।
जागेश्वरी—बिना मांझी के नाव पार लगाना बहुत कठिन है। जिधर हवा पाती है, उधर बह जाती है।
हृदयनाथ—जो रास्ता निकालता हूं वही कुछ दिनों के बाद किसी दलदल में फंसा देता है। अब फिर बदनामी के समान होते नजर आ रहे है। लोग कहेंगें, लडकी दूसरों के घर जाती है और कई-कई दिन पडी रहती है। क्या करूं, कह दूं, लडकियों को न पढाया करो?
जागेश्वरी –इसके सिवा और हो क्या सकता है।
कैलाशकुमारी दो दिन बाद लौटी तो हृदयनाथ ने पाठशाला बंद कर देने की समस्या उसके सामने रखी। कैलासी ने तीव्र स्वर से कहा—अगर आपको बदनामी का इतना भय है तो मुझे विष देदीजिए। इसके सिवा बदनामी से बचने का और कोई उपाय नहीं है।
हृदयनाथ—बेटी संसार में रहकर तो संसार की-सी करनी पडेगी।
कैलासी तो कुछ मालूम भी तो हो कि संसार मुझसे क्या चाहता है। मुझमें जीव है, चेतना है, जड क्योंकर बन जाऊ। मुझसे यह नहीं हो सकता कि अपने को अभाहगन, दुखिया समझूं और एक टुकडा रोटी खाकर पडी रहूं। ऐसा क्यों करूं? संसार मुझे जो चाहे समझे, मै अपने को अभागिनी नहीं समझती। मै अपने आत्म-सम्मान की रक्षा आप कर सकती हूं। मैं इसे घोर अपमान समझती हूं कि पग-पग पर मुझ पर शंका की जाए, नित्य कोई चरवाहों की भांति मेरे पीछे लाठी लिए घूमता रहे कि किसी खेत में न जाने बूडू। यह दशा मेरे लिए असह्य हैं।
यह कहकर कैलाशकुमारी वहां से चली गयी कि कहीं मुंह से अनर्गल शब्द न निकल पडें। इधर कुछ दिनों से उसे अपनी बेकसी का यर्थाथ ज्ञान होने लगा था स्त्री पुरूष की कितली अधीन है, मानो स्त्री को विधाता ने इसलिए बनाया है कि पुरूषों के अधिन रहं यह सोचकर वह समाज के अत्याचार पर दांत पीसने लगती थी।
पाठशाला तो दूसरे दिन बन्द हो गयी, किन्तु उसी दिन कैलाशकुमारी को पुरूषों से जलन होने लगी। जिस सुख-भोग से प्रारब्ध हमें वंचित कर देता है उससे हमे द्वेष हो जाता है। गरीब आदमी इसीलए तो अमीरों से जलता है और धन की निन्दा करता है। कैलाशी बार-बार झुंझलाति कि स्त्री क्यों पुरूष पर इतनी अवलम्बित है? पुरूशष क्यों स्त्री के भग्य का विधायक है? स्त्री क्यों नित्य पुरूषों का आश्रय चाहे, उनका मुंह ताके? इसलिए न कि स्त्रियों में अभिमान नहीं है, आत्म सम्मान नहीं है। नारी हृदय के कोमल भाव, उसे कुत्ते का दुम हिलाना मालूम होने लगे। प्रेम कैसा। यह सब ढोग है, स्त्री पुरूष के अधिन है, उसकी खुशमद न करे, सेवा न करे, तो उसका निर्वाह कैसे हो।
एक दिन उसने अपने बाल गूंथे और जूडे में एक गुलाब का फूल लगा लिया। मां ने देखा तो ओठं से जीभ दबा ली। महरियों ने छाती पर हाथ रखे।
इसी तरह एक दिन उसने रंगीन रेशमी साडी पहन ली। पडोसिनों में इस पर खूब आलोचनाएं हुईं।
उसने एकादशी का व्रत रखनाउ छोड दिया जो पिछले आठ वर्षों से रखमी आयीं थी। कंघी और आइने को वह अब त्याज्य न समझती थी।
सहालग के दिन आए। नित्य प्रति उसके द्वार पर से बरातें निकलतीं । मुहल्ले की स्त्रियां अपनी अटारियों पर खडी होकर देखती। वर के रंग –रूप, आकर-प्रकार पर टिकाएं होती, जागेश्वरी से भी बिना एक आख देखे रहा नह जाता। लेकिन कैलाशकुमारी कभी भूलकर भी इन जालूसो को न देखती। कोई बरात या विवाह की बात चलाता तो वह मुहं फेर लेती। उसकी दृष्टि में वह विवाह नहीं, भोली-भाली कन्याओं का शिकार था। बरातों को वह शिकारियों के कुत्ते समझती। यह विवाह नहीं बलिदान है।
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तीज का व्रत आया। घरों की सफाई होने लगी। रमणियां इस व्रत को तैयारियां करने लगीं। जागेश्वरी ने भी व्रत का सामान किया। नयी-नयी साडिया मगवायीं। कैलाशकुमारी के ससुराल से इस अवसर पर कपडे , मिठाईयां और खिलौने आया करते थे।अबकी भी आए। यह विवाहिता स्त्रियों का व्रत है। इसका फल है पति का कल्याण। विधवाएं भी अस व्रत का यथेचित रीति से पालन करती है। ति से उनका सम्बन्ध शारीरिक नहीं वरन् आध्यात्मिक होता है। उसका इस जीवन के साथ अन्त नहीं होता, अनंतकाल तक जीवित रहता है। कैलाशकुमारी अब तक यह व्रत रखती आयी थी। अब उसने निश्चय किया मै व्रत न रखूंगी। मां ने तो माथा ठोंक लिया। बोली—बेटी, यह व्रत रखना धर्म है।
कैलाशकुमारी-पुरष भी स्त्रियों के लिए कोई व्रत रखते है?
जागेश्वरी—मर्दों में इसकी प्रथा नहीं है।
कैलाशकुमारी—इसलिए न कि पुरूषों की जान उतनी प्यारी नही होती जितनी स्त्रियों को पुरूषों की जान ?
जागेश्वरी—स्त्रियां पुरूषों की बराबरी कैसे कर सकती हैं? उनका तो धर्म है अपने पुरूष की सेवा करना।
कैलाशकुमारी—मै अपना धर्म नहीं समझती। मेरे लिए अपनी आत्मा की रक्षा के सिवा और कोई धर्म नहीं?
जागेश्वरी—बेटी गजब हो जायेगा, दुनिया क्या कहेगी?
कैलाशकुमारी –फिर वही दुनिया? अपनी आत्मा के सिवा मुझे किसी का भय नहीं।
हृदयनाथ ने जागेश्वरी से यह बातें सुनीं तो चिन्ता सागर में डूब गए। इन बातों का क्या आश्य? क्या आत्म-सम्मान को भाव जाग्रत हुआ है या नैरश्य की क्रूर क्रीडा है? धनहीन प्राणी को जब कष्ट-निवारण का कोई उपाय नहीं रह जाता तो वह लज्जा को त्याग देता है। निस्संदेह नैराश्य ने यह भीषण रूप धारण किया है। सामान्य दशाओं में नैराश्य अपने यथार्थ रूप मे आता है, पर गर्वशील प्राणियों में वह परिमार्जित रूप ग्रहण कर लेता है। यहां पर हृदयगत कोमल भावों को अपहरण कर लेता है—चरित्र में अस्वाभाविक विकास उत्पन्न कर देता है—मनुष्य लोक-लाज उपवासे और उपहास की ओर से उदासीन हो जाता है, नैतिक बन्धन टूट जाते है। यह नैराश्य की अतिंम अवस्था है।
हृदयनाथ इन्हीं विचारों मे मग्न थे कि जागेश्वरी ने कहा –अब क्या करनाउ होगा?
जागेश्वरी—कोई उपाय है?
हृदयनाथ—बस एक ही उपाय है, पर उसे जबान पर नहीं ला सकता
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